Khabarwala 24 News New Delhi : Rajiben Vankar कच्छ के एक छोटे से गांव कोटाय की रहनेवाली राजीबेन वांकर वैसे तो एक बुनकर परिवार से ही ताल्लुक रखती हैं। लेकिन उन्होंने कच्छ की सदियों पुरानी पारंपरिक कला को एक बिल्कुल ही नया रूप दे दिया है। यही वजह है की आज राजीबेन आम बुनकरों से हटकर अपनी अलग पहचान बना पाई हैं। आज वह अपने ही नाम से एक सस्टेनेबल ‘मेड इन इंडिया’ ब्रांड चलाती हैं। कच्छ की रहने वाली राजीबेन वनकर प्लास्टिक वेस्ट से अलग-अलग प्रोडक्ट्स बनाती हैं। फ़िलहाल, राजीबेन के साथ 30 से 40 महिलाएं काम कर रही हैं।
प्लास्टिक वेस्ट लाने काे आठ महिलाएं काम कर रही (Rajiben Vankar)
कच्छ के अलग-अलग इलाकों से प्लास्टिक वेस्ट लाने के लिए आठ महिलाएं काम कर रही हैं। महिलाओं को एक किलो प्लास्टिक वेस्ट के एवज में 20 रुपये मिलते हैं। इस तरह जमा किए गए प्लास्टिक वेस्ट को पहले धोकर सुखाया जाता है। इसके बाद इसे रंगों के आधार पर अलग किया जाता है। फिर इस प्लास्टिक की कटिंग करके धागे बनाए जाते हैं, जिसके बाद बुनाई का काम होता है। एक बैग बनाने में वे तकरीबन 75 प्लाटिक बैग्स को रीसायकल करते हैं।
20 से 25 प्रोडक्ट्स, कीमत 200 से 1300 रु तक (Rajiben Vankar)
प्लास्टिक धोने के लिए महिलाओं को प्रतिकिलो 20 रुपये दिए जाते हैं, जबकि कटिंग करने वाली महिलाओं को प्रति किलो 150 रुपये दिए जाते हैं। साथ ही एक मीटर शीट बनाने पर महिलाओं को 200 रुपये दिए जाते हैं। फिलहाल वह तकरीबन 20 से 25 प्रोडक्ट्स बना रही हैं, जिसकी कीमत 200 से 1300 रुपये तक है। कभी मजदूरी करने वाली राजी बेन आज 30 से 40 महिलाओं को रोज़गार दे रही हैं।
देश विदेश की प्रदर्शनियों तक पहुंचा चुकी प्रोडक्ट्स (Rajiben Vankar)
वैसे तो सामान्य रूप से कच्छ कला में बुनाई और कशीदाकारी का काम रेशम या ऊन के धागे से होता है । लेकिन राजीबेन बुनाई का काम प्लास्टिक वेस्ट से करती हैं और इससे ढेर सारे प्रोडक्टेस बनाती हैं। इन प्रोडक्ट्स को वह देश विदेश की कई प्रदर्शनियों तक भी पहुंचा चुकी हैं। लेकिन यहां तक पहुंचने का उनका सफर आसान नहीं रहा। एक वक़्त था जब यही राजी बेन बुनाई और कला से दूर मजदूरी का काम किया करती थीं, ताकि अपना घर चला सकें।
घर वालों से छुपकर सीखी कला मुसीबत में आई काम (Rajiben Vankar)
राजी बेन ने बताया हम छह भाई-बहन हैं। दो बड़ी बहनों की शादी करने के बाद परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई थी। मैं उस समय पिता से छुपकर अपने चचेरे भाइयों से बुनाई का काम सीखने जाया करती थी, लेकिन जब मैं 18 साल की हुई, तो मेरी भी शादी कर दी गई और मैं पिता की कोई मदद नहीं कर पाई। शादी के बाद तो राजीबेन ने फिर से बुनाई के काम से जुड़ने के ख्वाब देखना छोड़ ही दिया था।
पति के निधन के बाद तीन बच्चों की जिम्मेदारी आ गई (Rajiben Vankar)
लेकिन शादी के 12 सालों बाद 2008 में, उनके पति का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। इसके बाद राजीबेन के ऊपर अपने तीन बच्चों की जिम्मेदारी आ गई। इस मुश्किल समय में घर चलाने के लिए राजीबेन मजदूरी किया करती थीं। उसी दौरान उन्हें कच्छ की एक संस्था का पता चला, जो बुनकर महिलाओं को काम दे रही थी। राजीबेन ने मौके का फायदा उठाया और संस्था से जुड़ गईं। इसी संस्था में उन्हें प्लास्टिक से बुनाई का आईडिया मिला।
कैसे बना मेड इन इंडिया व सस्टेनेबल ब्रांड ‘राजीबेन’? (Rajiben Vankar)
10 सालों तक वहां काम करने के बाद, राजीबेन ने खुद का ब्रांड बनाने का फैसला किया। वैसे तो राजीबेन को कच्छ कला की पूरी जानकारी थी, लेकिन मार्केटिंग कैसे की जाती है, यह उन्हें पता नहीं था। इसी बीच उनका संपर्क अहमदाबाद के नीलेश प्रियदर्शी से हुआ। नीलेश ‘कारीगर क्लिनिक’ नाम से एक बिज़नेस कंसल्टेंसी चलाते हैं। वह कहते हैं न जहाँ चाह वहीं राह! राजीबेन के हुनर को कारीगर का साथ क्या मिला उनका ब्रांड कुछ महीनों में ही देशभर में छा गया। देश के अलग-अलग शहरों की प्रदर्शनी में भाग लेने जाती हैं।