Khabarwala 24 News New Delhi: Zra Hatke उत्तराखंड (Uttarakhand) में हर 12 साल में आयोजित होने वाली श्री नन्दा देवी (Nanda Devi) यात्रा एक धार्मिक और ऐतिहासिक पर्व है। यह यात्रा कुल 280 किलोमीटर लंबी होती है और नन्दा देवी को भगवान शिव की पत्नी, मां पार्वती के रूप में पूजा जाता है।
नन्दा देवी यात्रा न केवल एक धार्मिक यात्रा है, बल्कि उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति और परंपराओं का अद्भुत प्रतीक है। आइए चलिए जानते हैं यह यात्रा 12 साल में क्यों की जाती है। क्या है इसके पीछे धार्मिक मान्यता?
माता नन्दा का मायका और ससुराल (Zra Hatke)
कैलाश पर्वत नन्दा देवी का ससुराल माना जाता है, जबकि चमोली जिले के पट्टी चादपुर और श्री गुरू क्षेत्र को उनका मायका माना जाता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, एक बार मां नन्दा मायके आईं और 12 वर्षों तक वहीं रहीं, जिसके बाद यह परंपरा बन गई कि हर 12 साल बाद मां नन्दा के मायके आने और विदाई का आयोजन होता है।
मायके से विदाई (Zra Hatke)
जब मां नन्दा को विदाई दी जाती है, तो यह दृश्य भावुक और श्रद्धा से भरा होता है। मायके वाले मां नन्दा को बड़े आदर और सम्मान के साथ विदा करते हैं, और यह परंपरा आज भी पूरी श्रद्धा के साथ निभाई जाती है।
दुर्गम यात्रा और प्राकृतिक सौंदर्य (Zra Hatke)
यात्रा की शुरुआत रिगणी घाट से होती है, फिर यह गैरोली पातल, बेदिनी बुग्याल (3354 मीटर) और रूपकुण्ड (4061 मीटर) तक जाती है। रूपकुंड में लगभग 700 साल पुराने नर कंकाल मिले हैं, जो प्राकृतिक आपदा का शिकार हुए यात्रियों के हो सकते हैं।
समुद्र शिला और कठिनाई (Zra Hatke)
रूपकुंड के बाद यात्रा समुद्र शिला तक जाती है, वहां की ऊंचाई पर वायुदाब के कारण सांस लेने में कठिनाई हो सकती है। यहां अक्सर हिमाच्छादित चट्टानों के टूटने का भी खतरा रहता है, जिससे यात्रा और कठिन हो जाती है।
होमकुंड और विदाई (Zra Hatke)
यात्रा के अंतिम चरण में, भाद्रपद माह की नवमी तिथि को यात्रा होमकुंड पहुंचती है, जहां पूजा के बाद मां नन्दा को विदा किया जाता है। इस अवसर पर चार सींग वाली भेड़ को त्रिशूली पर्वत की ओर रवाना किया जाता है, जो मां नन्दा के धाम की ओर उनकी विदाई का प्रतीक होती है। यह यात्रा श्रद्धालुओं को साहस, धैर्य और विश्वास की परीक्षा लेने का अनूठा अवसर देती है।